इतिहास
राजधानी दिल्ली में निगम बोध घाट के सामने हनुमान सेतु के पास यमुना बाजार स्थित मरघट वाले बाबा के नाम से विख्यात प्राचीन हनुमान मन्दिर है। यह एक ऐतिहासिक स्थल है। हनुमान जी का यह मन्दिर पांडवकालीन है, लोक्श्रुत के अनुसार जब पाण्डव कुरूक्षेत्र की रणभूमि से विजय प्राप्त करके लौट रहे थे, तब राम भक्त हनुमान रथ की ध्वजा से इसी स्थल पर उतर गये थे। भगवान श्री कृष्ण के कहने पर भी हनुमान जी ने आगे जाना मंजूर नहीं किया। उनका कहना था कि पाण्डव पुत्र भीम के अनुरोध पर मैं अर्जुन की रक्षा हेतु रथ की ध्वजा पर आरूढ़ हुआ था, अब महाभारत युद्ध में पाण्डब विजयी हो चुके हैं, इसलिए मेरा कार्य भी पूरा हो चुका है। अतः अब मैं यही स्थापित रहूंगा। तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने प्रिय 'पांचजन्य' शंख से उद्घोष किया और कहा कि आने वाले कलयुग में यह स्थान मोहमाया ग्रस्त मानवों को सदज्ञान की प्राप्ति का स्थान बनेगा।
सभी को मालूम है कि हनुमान जी महारज चिरंजीव/अजर अमर हैं। और हमारे वेद-पुराणों के अनुसार अगले होने वाले ब्रह्मा भी हनुमान जी ही हैं। अतः यह स्थल जागृत है। तब पाण्डवों ने हनुमान जी का पूजन-अर्चना किया था जो भक्तों द्वारा आज तक जारी है।
द्वापर युग से शुरू होता है, इस मन्दिर का इतिहास। इसने दिल्ली के उत्थान व पतन का लम्बा सिलसिला देखा है, कभी यहां पांडवों की इन्द्रप्रस्थ नगरी थी। इतनी खूबसूरत और हसीन की हस्तीनापुर का कुमार दुर्योधन इसे देखकर बेचैन हो गया। महाभारत युद्ध के बाद इन्द्रपस्थ उजड़ गया। भग्नावशेष के रूप में पाण्डाबों का किला आज भी है, जो पल भर को हमें उसी पॉडवकालीन इन्द्रपस्थ में अनायास ही खीच कर ले जाता है। इन्द्रप्रथ कुछ काल के लिए सकरप्रस्थ, सकरपुरी और सत्करातुप्रस्थ के नाम से भी कलांतर में जाना गया। महाभारत काल के बाद हिन्दू राजाओं का काल शुरू होता है। ग्यरहवीं शताब्दी तक अनेक राजा आये और गये। ग्यारहवीं शताब्दी में इस मन्दिर ने यहां तोमर वंश के राजा अनंगपाल का कलांतर में दिल्ली पर कुतुबुद्दीन, सुल्ताना रजिया बेगम, नसीरूद्दीन, बलवन, खिलजी सल्तनत, मुगल सल्तनत, लोधियों का शासन और उसके बाद औरंगजेब तक का शासन दिल्ली ने देखा है, इस मन्दिर ने लाल किले पर भरतपुर के जाटों को और नादिरशाह नामक लुटेरे को झपटते भी देखा है और देखा है अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह ज़फर को अंग्रेजों के हाथों बंदी होकर दिल्ली से जाते हुए। मन्दिर के नजदीक ही बने किला सलीमगढ़ को भी अंग्रेजीं के हाथों ध्वस्त होते देखा है और इन सब घटनाओं का एक मात्र गवाह इतिहास के साथ-साथ यह मन्दिर भी रहा है।